दयासिंधु
दयासिंधु
डॉ मृत्युंजय कोईरी
रांची झारखंड
किसान परिवार के घर जन्मा दयासिंधु कुशवाहा बचपन से पशु-पक्षियों को दाना खिलाता। जब दयासिंधु की रोटी को काक, मुर्गा और बकरी के बच्चे छीन लेते। तब अन्य बच्चों की भाँति रोता नहीं। उन्हें खाते देख खुशी से हँसता। माँ दयासिंधु को चलना सिखातीं। दयासिंधु गिरता-पड़ता। माँ दौड़कर जाती और गोदी में उठाकर बोलती, ‘‘अरे!अरे! मेरे लाल गिर गया रे!’’ दयासिंधु माँ की गोदी में हँसने लगता और चलने सिखने को आतुर होकर गोदी से उतरने के लिए जिद करता। दयासिंधु कभी भी माँ को तंग नहीं किया।
दयासिंधु बचपन में सहपाठी के साथ खेलने चला जाता है। सहपाठी में सबसे बड़ा मनीष है। वह खेल-खेल में नाराज हो जाता है। खेल के नियमानुसार हार जाने पर भी हार स्वीकार नहीं करता है। और आगे खेलते रहना चाहता है। जब उन्हें खेलने नहीं देते। तब रोने लगता। एक दिन रोते-रोते घर जाकर माँ से शिकायत करता है। मम्मी मम्मी... दयासिंधु ने मुझे मारा! क्रोध में मनीष की माँ दयासिंधु को आकर डाँटती है, ‘‘आज से मनीष को मारा तो मैं, तुझे मारकर भरता बना दूँगी। तुम्हारे माता-पिता से मैं नहीं डरती हूं। मैं, किसी से नहीं डरती। समझा!’’
दयासिंधु चुपचाप सुनता रहा और मनीष की माँ की बात का एक भी उत्तर नहीं दिया। मनीष को दयासिंधु दो बार सहपाठी से मार खाने से बचा चुका है। जब भी सहपाठी के बीच झगड़ा होता। वह सबको समझा-बूझा कर शांत करता और सब के बीच एक सेतु बनकर एक-दूसरे को गले मिलाने के उपरांत पुनः एक साथ मिल-जुल कर खेलने को प्रेरित करता।
दस बरस का दयासिंधु पिता की आत्मा को मोह लिया है। पिता के साथ भोर में उठकर खेत चला जाता। पिता के हर काम में मदद करता। भले वह ठीक से नहीं कर पाता। कभी हार नहीं माना और न आँखों में गम ही। माँ के बीमार होने पर स्वयं चूल्हा जलाकर पानी गरम करके दवा खिलाता। पिता के खेत या बाजार जाने पर खाना बनाकर माँ को पहले खिलाता। और पिता के घर आ जाने के उपरांत ही खाता। वह भी पिता का खाना भी निकाल देने के बाद। पिता गर्व से किसान भाइयों के सामने अपने पुत्र का नाम लेता।
पिता-पुत्र मोटरसाइकिल से कपड़ा खरीदने जामुदाग चले जाते हैं। कपड़ा खरीदने के बाद जामुदाग बाजार में फल खरीदकर बजरंगबली मंदिर के पीछे स्थिति आनंद होटल में बैठकर नास्ता कर रहे हैं। अगले सप्ताह रामनवमी है। बजरंगबली मंदिर का रंगाई-पोताई का काम जारी है। एक पेंटर मंदिर के शिखर पर बैठकर पेंट कर रहा है। पेंटर का पैर फिसलने पर वह सड़क में ताड़ की भाँति गिर जाता है। उन्हें गिरता देख आसपास के सभी लोगों के मुँह से आवाज निकती है, ‘‘पेंटर मंदिर के शिखर से गिर गया। जल्दी कोई डाॅक्टर को बुलाओ! कोई गाड़ी को बुलाकर लाओ! हाॅस्पिटल लेकर जाना होगा। न जाने शरीर का कोई एक अंग भी ठीक-ठाक बचा हो! मंदिर का शिखर इक्यावन फुट का है। उतना ऊपर से गिरा है। कोई दस फुट ऊपर से गिरता है तो उसका हाथ-पैर और कमर टूट जाता है। राम! राम! भगवान ऐसा ना करे! हे! महाबली बजरंगबली पेंटर को बचा लेना!’’
पेंटर डाॅक्टर को बुलाकर लाने से पहले ही उठा और लोगों के माना करने पर भी वह पुनः हनुमान मंदिर के शिखर में चढ़ गया। फिर पेंट करने लगता है। सब उसे देखता ही रह गया। शरीर के किसी एक अंग से भी एक बूँद खून नहीं निकला।
दयासिंधु रास्ते में पिता से पूछा, ‘‘पिताजी वह पेंटर उतनी ऊँचाई से गिरकर कैसे बच गया? और सब लोग कह रहे थे कि पेंटर मर गया! मर गया......! लेकिन उनके शरीर के किसी एक अंग से भी खून का एक बूँद नहीं निकला। मैं, एक दिन मेंड़ से गिर गया था। तब कुहनी से खून निकल रहा था। माँ के द्वारा बोरोप्लस लगा देने के उपरांत ही खून बंद हुआ था।’’
‘‘बेटा, आज पेंटर को देखकर मैं भी सोच में पड़ गया। लोग कहते हैं कि कलियुग में कोई भगवान नहीं हैं। यदि भगवान नहीं होते तो पेंटर का बचना मुमकिन ही नहीं नामुमकिन था। बेटा मुझे लगता है कि पवन पुत्र हनुमान ने आज स्वयं उनकी रक्षा की है।’’
‘‘ऐसा है तो फिर हम भी इस साल के रामनवमी से पवन पुत्र हनुमान की पूजा करेंगे, पिताजी।’’
‘‘बेटा, घर में हनुमान का झंडा उठाने के बाद हर मंगलवार के दिन स्नान करके कम-से-कम अगरबत्ती जलाना होगा। बेटा, मैं हाट-बाजार जाता रहता हूँ। मेरे लिए कर पाना कठिन होगा। तेरी माँ भी मजदूर के साथ सुबह ही खाना बनाकर खेत चली जाती हैं। हम दिन-भर में तीन बार भगवान का नाम ले लेते हैं। हम सभी किसान सुबह उठकर काम शुरू करने से पहले भगवान का नाम लेते हैं। फिर दोपहर को और खेत से थके-हारे रात को सोते समय। इसी में भगवान संतुष्ट होकर दिन-रात हरि का नाम जपने वाले नारदजी के द्वारा श्रीहरि से अपने परम भक्त का नाम पूछने पर। श्रीहरि ने किसान को अपना परम भक्त बतलाया है बेटा।’’
‘‘यदि ऐसी बात है तो पिताजी। मैं, भी आज से श्रीहरि का नाम लूँगा। और मंगवार के दिन स्नान करके अगरबत्ती जलाने के बाद ही खाना खाऊँगा। चाहे क्यों न दोपहर ही हो जाय? फिर भी मैं हनुमान की पूजा करूँगा, पिताजी।’’
‘‘अच्छा कर लेना बेटा।’’
दयासिंधु रामनवमी के दिन स्वयं दुकान से पूजा का सामान खरीदकर लाया और पूजा-पाठ करके बजरंगबली का झंडा तुलसीमंच के सामने गाड़ दिया। दयासिंधु हर मंगलवार को स्नान करके पूजा-पाठ करने लगा।
गर्मी के दिनों में आंधी-पानी से पक्षी का बच्चा घोंसले से गिर जाता है। दयासिंधु आंधी-पानी के बंद होते ही पक्षी के बच्चों को पेड़ की डाली में स्थिति घोंसला में रख देता है। यह किसी को भी परेशानी में देखने के बाद किसी के कहे बिना ही बचाव के लिए दौड़ पड़ता है। सुबह के आठ बजे गाँव के अधिकतर बच्चा स्कूल जाने से पहले स्नान करने तालाब चले जाते हैं। दयासिंधु ऐसे कुआँ में स्नान करता है। परन्तु आज सभी दोस्तों के आग्रह पर सहपाठी के साथ स्नान करने तालाब चला गया है। पन्द्रह वर्ष का राहुल सभी बच्चों को तैरना सिखा रहा था। सिखाते-सिखाते चार बच्चे अंदर चले जाते हैं। चारों तालाब के अंदर पानी पी-पीकर डूबने लगे थे। तैरकर जाने से उन्हें बचा पाना असंभव है। और पेड़ के ऊपर चढ़कर तालाब की ओर गयी डाली से छलांग लगाना खतरा है। तालाब में बहुत दलदल है। उस दलदल में फंस जाने पर बचना नामुमकिन है। पेड़ की डाली जमीन से पाँच फुट के ऊपर से झुँककर तालाब के एक चौथाई भाग तक गयी हुई है। स्नान करने जाने वाले बच्चे इस डाल में खूब दौड़ते हैं। एक बच्चा बरसात के समय पेड़ की डाली से खेलते-खेलते शर्त लगाकर तालाब में छलांग लगा दिया था। वह तालाब के दलदल में फंस गया था। लोगों ने निकालने का प्रयास किया था। लेकिन वह दलदल में इस तरह फंस गया था कि उनकी मुर्दा लाश ही बाहर निकाल पाये थे। बच्चों को तालाब में डूबता देख। दयासिंधु सहपाठी को तैरकर जाने को कहा और स्वयं पेड़ के ऊपर चढ़कर डाली से छलांग लगाकर पानी के अंदर ही डूबकर बच्चों के पास पहुँच गया। चारों बच्चों को पकड़ लिया। सहपाठी के सहयोग से उस दिन उन चारों बच्चों को डूबने से बचाया।
मैं, दयासिंधु, मनीष और अन्य साथी गाय-बैल और बकरी चराने ले जाते। मैं, पाँचवीं कक्षा में जब प्रेमचंद की कहानी ‘दो बैलों की कथा’ पढ़ी। उसके बाद मैंने मेरे दोनों बैल का नाम हीरा और मोती रखा। हीरा लड़ने में तेज था। और मोती हीरा से हारकर प्रतिद्वंद्वी पीठ दिखाकर भागते हुए को गाय के पीछे-पीछे दौड़ने वाले सांड़ बनकर दौड़ाता। हीरा से आस-पास के बिरगामडीह, धारूडीह, जाहेरडीह और मेरे गाँव के बैल लड़ने के लिये नहीं आते। एक बार पूस मास के समय जाहेरडीह का एक मोटा-तगड़ा बैल हीरा से लड़ने दूर से गरजता हुआ आ जाता है। हीरा चार फुट का छोटा बैल, उस मोटा-तगड़ा और लम्बा बैल को मेंड़ के नीचे गिरा देता है। उस बैल का चारों पैर ऊपर हो गया।
जेठ-आषाढ़ का समय था। खेतों में धान की बुआई की गयी थी। पत्थर का कुआँ के सामने हीरा चर रहा। मनीष का बैल दौड़ता हुआ आकर पीछे से धूँस देता है। हीरा कुआँ में गिर गया। हीरा के तीन-चार जगह से खून निकल रहा। मैं, हीरा को कुआँ से निकालने के लिए लोगों से मदद मांगने गाँव की ओर दौड़ा। दयासिंधु मेरे घर जाकर पापा के साथ रस्सी लेकर मेरे आने से पहले वापस हीरा के पास पहुंच गया। दयासिंधु रस्सी लेकर कुआँ में उतर जाता है। मैं, पानी में तैरना नहीं जानता। और कई कुआँ में उतरने को तैयार नहीं होते हैं। दयासिंधु के बार-बार कहने पर और हीरा का दर्द मेरे से देखा नहीं जा रहा। तब मैं, कमर में रस्सी बाँध लिया और रस्सी के सहारे उतर जाता हूँ। कुआँ के अंदर हीरा श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र की भाँति घूम रहा। दयासिंधु हीरा के चारों पैर के बीच में पानी के अंदर से पार हो जाता है। और मुझे एक रस्सी थमा दिया। हीरा के सिंग में पहले बाँध लिया। फिर एक ठीक अगले पैर के और दूसरा पिछले पैर के सामने बाँध लेता है। मैं, केवल रस्सी पकड़ा दे रहा। सारा खतरे से भरा काम दयासिंधु ने की और दोनों कुआँ से बाहर आ जाते हैं। बैल को खींचकर कुआँ से निकालते समय भी मैं और दयासिंधु एक रस्सी को केवल बजरंगबली का नाम लेते हुए खींच रहे।
हीरा को कुआँ से बाहर निकाल लेने के बाद सभी लोगों ने सोलह साल के दयासिंधु के अद्भुत साहस और बैल के प्रति दया को देख, कानाफूसी करने लगे। कानाफूसी के बीच एक वृद्ध कहता है, ‘‘मेरा सत्तर साल हो गया है बेटा! आज तक तेरा जैसा साहसी लड़का नहीं देखा। बेटा! तुम हजार साल जीओ! तेरा क्या नाम है बाबू?’’
दयासिंधु धीरे से कहता है, ‘‘दया’’
वृद्ध पुनः कहता है, ‘‘वास्तव में तेरे जैसा लड़का का नाम दया ही होना चाहिए। मैं, तुम्हारा पिता होता तो दया की जगह दया के सागर दयासिंधु रखता। तुम्हारे साहस और एक बैल की जान बचाने के लिए स्वयं की जान को खतरे में डालना, कोई खेल नहीं है। तुम आठरह आना में आठरह आना दया के सागर दयासिंधु ही हो। जिसमें कहीं संदेह नहीं है। क्या आप सब मेरी बात से सहमत हैं?’’
‘‘हाँ, हाँ, ......’’ सब कहने लगे।उस दिन के बाद से सब दया को दयासिंधु ही कह कर बुलाने लगेे।
दयासिंधु पढ़ाई में भी बहुत तेज था। मैट्रिक की परीक्षा में अनुमंडल टाॅपर रहा। पिताजी की असमय मौत से पढ़ाई छोड़नी पड़ी। माँ की तबीयत बार-बार खराब होने की वजह से जल्द ही शादी करनी पड़ी। हर दिन दस-बीस मजदूर को काम देने लगा। दयासिंधु केवल सब्जी बिका करता। बाकी काम पत्नी और मजदूर करते। सप्ताह में चार-पाँच भाट-भिखारी घर आ जाते। उन्हें अन्य किसानों के तुलना में अधिक अनाज और सब्जी देता। दो भिखारी जब-जब आते कुछ खाये बिना नहीं जाते। भाट-भिखारी का कभी अनादर नहीं किया।
आषाढ़ का महीना था। चार दिन की मूसलाधार वर्षा से दिन-रात के पानी से कांची नदी प्रचंड रूप में आ गई थी। कांची नदी से हड़-हड़ की आवाज आ रही थी। तब आस पास कहीं पुल नहीं था। दिनेश मुण्डा बाराती के साथ लोवाडीह गाँव शादी करने के लिए जा रहा। झमाझम बारिश और कांची नदी का रुद्र रूप देख नाविक तीन दिन से नाव चलाना बंद कर दिया था। लेकिन दिनेश और बाराती शाम के चार बजे नाविक को नाव चलाने की जिद करते हैं। नाविक का कहना था कि आज नाव चलाना मौत के मुँह में जाने के बराबर है। किंतु आप लोगों की जिद पर हम नदी में नाव ले जा रहे हैं। यदि किसी प्रकार की अनहनी घटी तो फिर हमें दोषी मत ठहराना। भगवान ना करे ऐसा हो! किसी तरह केवल दस आदमी को पार कर सकते हैं। नदी की रफ्तार को आप सब भी देख ही रहे हैं। कांची नदी का यह रुद्र रूप कभी हमारे पिताजी भी नहीं देखे हैं।
नाविक के माना करने पर भी दिनेश के साथ पन्द्रह बराती नाव में सवार हो जाते हैं। नाव में आदमी को सवार होते देख। एक बूढ़ा नाविक दूर से नाव नहीं चलाने का आग्रह करता हुआ बोल रहा है, ‘‘अरे! आज नाव मत चलाना। दोपहर को नाव में साँप चढ़ गया था। नाव में साँप का चढ़ना बहुत बड़ा अपशकुन होता है। एक बार नाव में साँप के चढ़ जाने के बाद चलायी थी। नाव बीच नदी में जाकर एक पत्थर से टकराकर पलट गयी थी। तब नदी में लगभग कमर तक ही पानी था, जो किसी प्रकार की जान-माल की क्षति नहीं हुई थी। तुम किसी की बात में आकर नाव कांची नदी में मत उतारना।’’
सभी छोकरे नाविक बूढ़ा नाविक की बात को अनसुना करके कांची नदी में नाव उतार देते हैं। नदी के तीन हिस्से में दो हिस्सा पार कर चुक थेे। नदी के ऊपर की ओर से नदी किनारे लगे पेड़ को भी डूबाकर आ रही बाढ़ को देख नाविक नदी में छलांग लगा लेते हैं। चारों नाविक एक-एक आदमी को पड़कर बाहर निकल जाते हैं।
कांची नदी के भर जाने पर बड़ी मछली खेत में आ जाती हैं। दयासिंधु अपने दोस्तों के साथ मछली पकड़ रहा। नाव के पलट जाने के बाद आदमी को डूबता देख, दयासिंधु बचाव के लिए नदी में कूद पड़ता है। नदी में बह रहे दो बच्ची को एक साथ बाहर निकाल लेता है। किनारे की ओर से बहाकर ले जा रहा एक व्यक्ति को भी निकाल लेता है। तब तक नदी का पानी कम होने लगा। पानी के कम होने पर एक औरत नदी के अन्दर पत्थर में खड़ी होकर रो रही है। थका-हारा दयासिंधु उस औरत को देख बचाने के लिए नदी के अन्दर चला जाता है। औरत को पकड़कर निकल रहा था कि नदी में पानी पुनः बढ़ गया। दयासिंधु और औरत बह गए। दयासिंधु एक किलो मीटर तक बहकर चला गया। बेहोश की अवस्था में नदी किनारे पेड़ के जड़ में जाकर फंसा। चोगा और धारूडीह की दूरी अधिक-से-अधिक एक किलोमीटर है। साहस और दया के सागर दयासिंधु की ख्याति किसी से छूपी नहीं थी। नदी किनारे धारूडीह गाँव के गाय-बैल और भैंस-भैंसा चराने वाले लड़के दयासिंधु को मोटा लकड़ी समझकर निकालने जाते हैं। जहाँ दयासिंधु को देख सब हड़बड़ाते हुए इधर-उधर दौड़ते हैं। एक साथ चारों लड़के नदी में उतरकर निकाल लेते हैं। शरीर बर्फ और पेट गुब्बारा बन चुका है। तीन लड़के बिना देर किये, कंधे में लकड़ी की तरह उठाकर दयासिंधु के घर की ओर चल पडे़। कंधे में उठाने के बाद पेट के दब जाने पर मुँह से हक-हक करके पानी निकलने लगा। घर पहुँते पेट से पानी निकलना बंद हो गया। पेट नर्मल हो गया। लेकिन शरीर बर्फ जैसा ही ठंडा। घर पहुँते ही बूढ़ी माँ और पत्नी सरसों तेल से शरीर की मालिश करने लगी।
मोटरसाइकिल के बीच में बैठाकर हाॅस्पिटल ले गए। डाॅक्टर की दवा देने के बाद भी तीन दिन तक बेहोश पड़ा रहा। गाँव के कुछ किसान भाई भगवान से दयासिंधु के जीवन की भीख मांगने लगे, ‘‘हे भगवान! आज हमारे संकटमोचन दया के सागर दयासिंधु जिंदगी और मौत के बीच खेल रहा है। हे पवन पुत्र हनुमान! आप आपके भक्त को बचा लीजिए। जिस तरह रामू के घर में आग लग गयी थी। और उनके दोनों बच्चे घर के अंदर सो रहे थे। दयासिंधु उन बच्चों को बाहर लेकर आ रहे थे। और सिर के ऊपर छत गिर गया था। लेकिन उस दिन आपकी कृपा से दयासिंधु का एक बाल भी नहीं जला था। उस दिन की भाँति ही इस बार भी हमारे प्राणों से प्यारे दयालु दयासिंधु को जीवन दान दे दीजिए प्रभु!’’ चौथे दिन होश आ गया। पाँचवें दिन डाॅक्टर डिस्चार्ज कर दिये।
एक पुत्र और एक पुत्री के पिता दयासिंधु अपनी अधूरी पढ़ाई का भी हिसाब बच्चों को पढ़ाकर पूरा कर रहे हैं। पुत्र एम0ए0 की डिग्री लेने के बाद बीएड में नामांकन करा लिया और पुत्री बी०ए० की फाइनल परीक्षा देने वाली है। देश में नोवेल कोरोना वायरस की वजह से देश के प्रधानमंत्री लाॅकडाउन की घोषणा कर दिये। संयोग से पुत्र और पुत्री दोनों ही घर आ गए हैं। दयासिंधु को बेटा-बेटी की चिंता नहीं सताई। किंतु सब्जियाँ खेत में सड़ने लगी। जिसकी चिंता सताने लगी। मार्केट और हाट-बाजार नहीं के बराबर लगने लगा। मार्केट में व्यापारी, गाड़ी और रेल को बंद होने की वजह से सब्जी लेना बंद कर दिये। हाट-बाजार में पुलिस के डर से आदमी घर से नहीं निकलते। पुलिस के सामने ग्रामीण उलझना नहीं चाहते। एक दिन मुकेेश सब्जी खरीदने बाजार जा रहा था और पुलिस ने कहा, ‘‘लाॅकडाउन में कहाँ घूम रहा बे? तुझे मजाक सूझ रहा है। अभी प्रसाद देता हूँ रूक! डंडे से लो प्रसाद! लो प्रसाद!’’ बोल-बोल कर चूतर में दो-तीन डंडा लगा दी। उस दिन के बाद से आदमी हाट-बाजार सब्जी खरीदने नहीं जाने लगे।
हाट में पुलिस दो-चार किसान को भी छह बजे से पहले सब्जी बिक कर घर नहीं जाने पर दो-दो हंडर लगा दी। किसान पुलिस के डर से उस दिन के बाद से पाँच बजे ही आधे से ज्यादा सब्जी वापस बोरा में डालकर घर लौट जाते हैं। हाट-बाजार में सब्जी नहीं बिकने पर दयासिंधु मोटरसाइकिल में सब्जी को लोड करके गाँव-गाँव जाकर बिकने लगा। वह भी मुँह में मास्क और सोशल डिस्टेंस का पालन करता है। मार्केट में चालीस-पचास रुपये में बिकने वाली सब्जी को दस रुपये में और बीस-तीस की सब्जी को पाँच रुपये में बिकने लगा। आदमी बिना सब्जी का खाना खा-खाकर तंग आ चुके थेे। कोई आदमी सब्जी के बिना नहीं के बराबरा खाना खाने लगे थे। हाट-बाजार से कम दाम में सब्जी पाकर एक-दो दिन के बाद पुनः आने का आग्रह करने लगे।
दयासिंधु दिन में दो से तीन बार तक बिकने ले जाने लगे। खेत में पत्नी मजदूर को लगाकर सब्जी बोरा में डालकर तैयार करातीं। मजदूर को भी लाॅकडाउन में काम मिल गया। उन्हें परिवार चलाने में परेशानी की पीड़ा उठानी नहीं पड़ी। मोटरसाइकिल का खर्च और मजदूर को देने के बाद केवल सौ रुपये बच रहा। अन्य किसानों के माना करने पर दयासिंधु का कहना है, ‘‘खेत में सड़ जाने से अच्छा है कि आदमी को सब्जी के बिना केवल भात और सूखी रोटी न खाना पड़े, न ही सब्जी के बिना भूखा रहना पड़े। यदि ऐसा नहीं करता हूँ तो मेरे खेत में बारह महीने काम करने वाले मजदूरों को उपवास रहना पड़ सकता है। सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है। भगवान! चाहे तो एक ही फसल में अब का नुकसान की भरपाई कर देंगे।’’
दयासिंधु की प्रेरणा से अन्य किसान भी गाँव-गाँव और घर-घर जाकर सब्जी बिकने लगे। एक दिन सब्जी बिककर समाप्त ही कर चुका कि काँपती हुए एक बूढ़ी औरत आकर सब्जी का दाम पूछती हैं। कुछ देर तक निहारने के बाद दयासिंधु हाथ में सब्जी उठाकर देते हुए कहता है, ‘‘बूढ़ी माँ आप अकेली हैं क्या?’’
‘‘नहीं बेटा! बेटा-पतोहू भी हैं। मैं ज्यादा खा रही हूँ। और काम नहीं कर पाती हूँ। इसलिए, मुझे अलग कर दिये हैं। मुझे प्रति-दिन केवल दो सेरा चावल देते हैं। मैं जैसे-तैसे बनाकर खा लेती हूँ।’’
उस दिन के बाद जब-जब दयासिंधु उस गाँव में जाता। बूढ़ी माँ को सब्जी मुफ्त में देता। दो-तीन दिन के बीच में हर गाँव में पहुँच जाते ही मुहल्ले से आदमी निकलकर सब्जी खरीद लेते। अब पहले से कम मेहनत करनी पड़ती। एक बार जब तीन दिन के बाद बूढ़ी माँ के गाँव में पहुँच जाता है। हर दिन बूढ़ी माँ घर के बाहर बैठी रहतीं। आज बूढ़ी माँ को घर केे बाहर पेड़ के नीचे बैठी नहीं देख, दयासिंधु एक व्यक्ति से पूछता है, ‘‘बूढ़ी माँ कहीं गई हैं क्या?’’
‘‘उस बूढ़ी औरत को कोरोना हो गई है। कल से बहुत तेज बुखार और खाँसी हो रही है। खाँसी के साथ खून की उल्टी भी करने लगी है। तुम भी मत जाना!’’ वह व्यक्ति कहता है
‘‘बूढ़ी माँ का बेटा क्या कर रहा है?’’
‘‘वह डर से माँ की कोठरी को बाहर से बंद कर दिया है।’’
‘‘उनका नाम क्या है? उनसे मुझे मिला दो जरा!’’
‘‘राजू नाम है। चलिए! उनसे मिला देता हूँ।’’
दयासिंधु राजू से कहता है, ‘‘बीमार बड़ी माँ को हाॅस्पिटल क्यों नहीं ले जा रहे हो?’’
‘‘अरे! भाई तुम भी कैसी बाते कर रहे हो। उसे कोरोना हो गई है। और तुम है कि उन्हें उठाकर हाॅस्पिटल ले जाने को कह रहे हो। मेरा भी बाल-बच्चा है। क्या तुम? बूढ़ी औरत के साथ मेरे परिवार को भी कोरोना के भयानक बीमारी से नष्ट कराना चाह रहे हो? उसे दो-चार दिन क्या मुफ्त में सब्जी दे दिया कि मुझे उपदेश देने आये हो? क्या उचित है? और क्या अनुचित है? मुझे सब ज्ञात है। आज नहीं तो कल वह मर जायेगी। जिसके लिए मैं, अपने परिवार को खतरे में नहीं डालूँगा।’’
‘‘तुम डाॅक्टर हो क्या? जो घर से ही जाँच के बिना कोरोना ही है। ऐसे कैसे कह रहे हो? यदि साधारण बुखार और खाँसी है। फिर भी वह तड़प-तड़प कर बेचारी मर जायेगी! तुम बेटा है या दुश्मन! बुखार और खाँसी होने से ही कोरोना नहीं होती। तुम घर में कोरोना का रोना रोते रहो। मैं, एम्बुलेंस को बुलाकर अभी हाॅस्पिटल लेकर जा रहा हूँ।’’ कहते हुए दयासिंधु फोन से एम्बुलेंस को बुला लिया। राजू से ताला की चाबी मांगकर कोठरी खोल ली। बूढ़ी माँ अंतिम साँस गिनने लगी है।
दयासिंधु का साहस और अटूट प्रेम देख राजू भी अपनी माँ को उठाने में सहायता की। एम्बुलेंस को रूकने बोलकर घर के अंदर चला गया। घर से निकलकर बिना कुछ कहे सीधे एम्बुलेंस में बैठा। दयासिंधु इसकी सूचना फोन से घर में दी और हाॅस्पिटल चला गया। दो दिन के बाद जाँच रिपोर्ट देख डाॅक्टर साहब कहता है, ‘‘बूढ़ी माँ को टीबी की बीमारी हो गयी है। मैं, कुछ दवाइयाँ लिख देता हूँ। समय-समय पर खिलाते रहना, घबराने की कोई बात नहीं है। आज दोपहर तक डिस्चार्ज कर दूँगा। बूढ़ी माँ को कोई कोरोना नहीं हुई है।’’
एम्बुलेंस से बूढ़ी माँ और राजू को उनके घर में छोड़कर राजू से बूढ़ी माँ की देखभाल करने का निर्देश दिया। और अपनी मोटरसाइकिल स्टार्ट करने के लिए मोटरसाइकिल में बैठ जाता है। राजू के पड़ोसी ताली बजाकर दयासिंधु का आभार प्रकट करते हैं। राजू धीरे से कहता है, ‘‘मेरे जैसे पापी की आँख खोलने वाले फरिशता। मुझे बस एक कृपा कर दें।’’
‘‘क्या? बोल न भाई!’’
‘‘जब-जब मैं आपका नाम पूछा। आप केवल यह कह कर टाल दिए कि नाम में क्या रखा है। पहले बूढ़ी माँ को खतरे से बाहर निकलने दो! जाते-जाते मुझे कृपा करके कम-से-कम आप अपना नाम बताते जाइए!’’
‘‘मेरे पिताजी ने मेरा छोटा-सा नाम दया रखा था। लेकिन मुझे सब दयासिंधु कहकर बुलाया करते हैं।’’
राजू के एक पड़ोसी कहता है, ‘‘वह कैसे?’’
‘‘एक दिन एक बैल कुआँ में गिर गया था। मैं, कुआँ से बैल को बाहर निकालने का थोड़ा-सा कष्ट उठाया था। उस दिन एक वृद्ध ने मेरा नाम दया से दयासिंधु रख दिया। उस दिन से सब मुझे दयासिंधु कहकर बुलाया करते हैं।’'
राजू और उनके पड़ोसी मिलकर एक साथ कह उठे, ‘‘हे दया के सागर! आप वास्तव में दया के सागर दयासिंधु ही हैं। आपकी कार्य ही अपरंपार है।’’
Good
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